6 हजार की सेना ने इस बादशाह पर आक्रमण किया, जिससे उसकी मुश्किलें बढ़ गईं। उसने कहा, “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली को खो देने के लिए तैयार हूँ।”
शेरशाह की शासनकाल में 16वीं सदी के पहले हिस्से में 2 महत्वपूर्ण बदलाव हुए थे। पानीपत की लड़ाई में लोदी हार गए थे और मुग़ल साम्राज्य ने हिंदुस्तान पर कब्ज़ा किया था, लेकिन फिर भी समय के साथ परिस्थितियाँ बदल गईं। 1540 में, शेरशाह ने अफग़ानों की मदद से सत्ता हासिल की और अपने शासनकाल में कई युद्धों का सामना किया, जिनमें मारवाड़ की लड़ाई विशेष रूप से महत्वपूर्ण थी।
1540 में, बिलग्राम की लड़ाई में मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह के हाथों हारकर हिंदुस्तान छोड़ने के लिए मजबूर हुए। इसके बाद अफ़ग़ान सरदार शेरशाह ने सत्ता कब्ज़ा की और उसकी राजसी हुई। कहा जाता है कि 1526 की पानीपत की लड़ाई में मुग़लों की हार के बाद लगभग 14 साल बाद शेरशाह ने पलटवार लिया। शेरशाह को अपनी सत्ता की रक्षा के लिए कई युद्ध लड़ने पड़े, और उसमें से एक लड़ाई ऐसी भी थी जिसमें उसको सरेंडर होना पड़ा।
सुमेलगिरी में महत्वपूर्ण मुलाकात
राजस्थान के मारवाड़ इलाके के सुमेलगिरी में 80 हजार सैनिकों के साथ दिल्ली का बादशाह आकर्षित हो गया था। वह मारवाड़ को किसी कीमत पर अपने साथ मिलाना चाहता था, लेकिन 36 विभिन्न हिंदू राजाओं ने शेरशाह से सामने आकर लड़ने का फैसला किया और सुमेलगिरी में मात्र 6 हजार सैनिकों के साथ मुकाबला करने के लिए तैयार हो गए। अपने संसाधनों की कमी के बावजूद, इन 6 हजार सैनिकों ने शेरशाह की लगभग 90 हजार की सेना के खिलाफ योगदान दिया, जिससे शेरशाह को आवाज आई कि यह लड़ाई आसान नहीं होगी। ऐसा भी हो सकता है कि वह हिंदुस्तान की सत्ता को खो दें। शेरशाह के सिपहसालारों ने उसे मारवाड़ छोड़ने की सलाह दी, जिस पर उसने पहले बौखलाया, लेकिन फिर समझ गया कि इसका मतलब क्या है। उसने यह भी कहा कि वह दिल्ली की सत्ता के लिए अपनी सल्तनत को त्याग देने के लिए तैयार है।
बेहद श्रेष्ठ युद्धकौशल
इस संदर्भ में एक प्रश्न उठता है कि कैसे वह मुग़ल बादशाह, जिन्हें शेरशाह ने 1539 और 1540 में दो बार हराया था, को मारवाड़ से उलटे पांव वापस आना पड़ा। इसके संबंध में इतिहासकारों का मानना है कि सुमेलगिरी में उसने बेहद उत्तम युद्धकौशल प्रदर्शित किया था। उस युद्ध में 36 विभिन्न कौमों के राजाओं को यह आभास हो गया था कि 80 हजार सैनिकों वाले शेरशाह सूरी को हराना मुश्किल हो सकता है, इसलिए उन्होंने अफ़ग़ानी सैन्य की आपूर्ति को रोक दिया। इसके साथ ही, उनका उत्साह और साहस देखकर शेरशाह को यकीन नहीं हो सका कि कोई सैन्य इस प्रकार की चुनौती दे सकती है। कई महीनों की घेराबंदी के बाद, जब उसे सफलता नहीं मिली, सिपहसालारों ने दिल्ली वापस लौटने का सुझाव दिया, जिस पर उसने विचार किया और स्वीकार किया।